Saturday 11 July 2009

जा रहा था मंजिल की और रास्ता भटक गया । धुन्धने निकला रास्ता तो कही पे फस गया । चलता रहा उन राहो पे मंजिल को धुन्ध्ते । कटता गया रास्ता न मिली मंजिल । फ़िर जा के सोचा कोन सी है मेरी मंजिल । इस जहाँ में अगर मंजिल धुंध ली तो क्या बचेगा झिंदगी में । वही पे राह में सोचा । मत सोचो मंजिल को । चलते रहो नए कारवां बना के । जब मिलनी होगी मंजिल मिले । क्यो बिगाडे इस सफर का मज़ा उसे सोचते हुए .....
शरद आचार्य

Friday 10 July 2009

समजना तो चाहा हम ने इस जहाँ को । और चाहा ये भी समजे हमें । न समाज पाए हम इसे न वो समजा हमे । शिकवे शिकायत हमेशा हमें भी और उसे भी । एक दुसरे की झरूरत हमें भी उसे भी । क्यो नही समाज पाते हम एक दुसरे को क्या इतनी मुश्किल बात है । सीधी सी एक बात है । दोनों के अपने ठाठ है ।
बस ख्वाहिश है मन में एक । जहाँ न समजे हमे तो कोई बात नही । जहाँ में कोई तो हो ऐसा जो समजे हमें ।

शरद आचार्य

Thursday 9 July 2009

भगवान ने बनाया ये खुबसूरत जहाँफ़िर बनाये ये हरेभरे जंगलये खुबसूरत नदियाऔर इन खूबसूरती को महसूस करने और जहाँ को और सुंदर और हरा भरा बनाने भगवान ने बनाये पंछी और खुबसूरत जानवरजिन्हें एक चक्र में झिंदगी दी और उन्होंने उस चक्र को निभाया भीफ़िर भगवान को लगा खूबसूरती ज्यादा हो गई बहोत अच्छा वातावरण बन रहा हैतो फ़िर भगवान ने इंसान को बनायाजिस ने हर खूबसूरती को बिगड़ना शुरू कियाहरे भरे जंगल गायब हो रहे हैनदिया प्रदूषित या गायब हो रही हैपंछी इंसानों के खाने में या शौख में ख़तम हो रहे हैजानवरों का चक्र ख़तम हो गया अब वो भी जो जहा मिले खा रहे है
ये सब देख के एक गाना थादुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई .दुनिया बनाई तो बनाई इंसान को क्यो बनाया ..........

sharad acharya